शान्त होकर देखो, हम एक ही समय में दो‑दो दुनियाओं में जी रहे होते हैं।
एक दुनिया शरीर के बाहर है – लोग, परिवार, पैसा, काम, सोशल मीडिया, सफलता और असफलता।
दूसरी दुनिया शरीर के भीतर है – विचार, भावनाएँ, डर, इच्छाएँ और हमारी बनाई हुई कहानियाँ।
पहली नज़र में ये दोनों दुनिया बिलकुल अलग दिखती हैं, लेकिन असल में दोनों एक ही “पर्दे” पर चल रही दो फ़िल्मों की तरह हैं – एक बाहर की स्क्रीन पर, दूसरी भीतर की स्क्रीन पर।
पहला पर्दा: शरीर के बाहर वाली दुनिया
इस पहले पर्दे पर सबसे पहली लाइन है – “मैं और मेरा”।
यहीं से खेल शुरू होता है।
मैं कौन हूँ? मेरा क्या‑क्या है? मेरा घर, मेरा शरीर, मेरा धर्म, मेरा करियर, मेरी इज़्ज़त, मेरा परिवार…
जैसे ही “मैं–मेरा” की कहानी गाढ़ी होती जाती है, वैसे‑वैसे हम खुद को केवल एक अलग व्यक्ति के रूप में महसूस करने लगते हैं।
फिर आता है दूसरा स्तर –
शरीर और शरीर से जुड़े सारे रिश्ते और वस्तुएँ।
हमारी पहचान इन रिश्तों और चीज़ों पर टिक जाती है – बेटा, बेटी, पति, पत्नी, माता‑पिता, कर्मचारी, बॉस, नागरिक, भक्त, आदि।
इनमें थोड़ा भी हिलाव आ जाए तो भीतर हलचल शुरू हो जाती है –
कहीं स्टेटस टूट न जाए, कहीं इमेज गिर न जाए, कहीं रिश्ता हाथ से निकल न जाए।
तीसरा स्तर है –
द्वेष, कम्पटीशन, घृणा, गुस्सा, मोह।
जब मैं खुद को बाकी सबसे अलग मानता हूँ, तब तुलना शुरू होती है।
कोई आगे निकल गया तो जलन;
किसी ने अपमान कर दिया तो गुस्सा;
कोई चीज़ बहुत पसंद आ गई तो मोह और आसक्ति।
धीरे‑धीरे ये भाव मन को पकड़ लेते हैं और हम भूल जाते हैं कि इन्हें भी हमने ही भीतर पैदा किया है।
चौथा स्तर –
सुख, दुख, बंधन, मुक्ति, धर्म, अधर्म।
बाहर की दुनिया हमें हर पल जज करने पर मजबूर करती है – ये अच्छा, ये बुरा; ये धर्म, ये अधर्म; ये सही, ये गलत।
इसी झूले में झूलते‑झूलते इंसान अपने आप को बंधन में जकड़ा हुआ महसूस करता है और फिर उसी से मुक्ति ढूँढने निकल पड़ता है।
फिर आती है गहरी मान्यता –
“मैं करता हूँ” – कर्ता‑भाव।
लगता है कि सब कुछ मैं ही कर रहा हूँ –
मैंने मेहनत की, मैंने बनाया, मैंने हासिल किया, मेरे बिना कुछ नहीं होगा।
यही कर्तापन हमें फल की चिंता, डर और भारीपन से भर देता है।
और अन्त में इस पूरे पहले पर्दे की जड़ है –
अज्ञानता।
अपने वास्तविक स्वरूप को न जानना ही अज्ञान है।
इसी अज्ञान पर “मैं और मेरा”, रिश्ते, द्वेष, मोह, सुख‑दुख, कर्तापन – सब खड़े हैं।
दूसरा पर्दा: शरीर के भीतर – चेतना की दुनिया
अब ज़रा ध्यान को उलटा मोड़कर भीतर देखते हैं।
शरीर के भीतर भी एक पर्दा है, लेकिन ये मन का बना हुआ नहीं, बल्कि चेतना का है।
सबसे पहली बात –
एक ही सत्ता – चेतना।
भीतर गहराई में जाओ तो पता चलता है कि जो देख रहा है, सुन रहा है, महसूस कर रहा है – वह एक ही अचूक उपस्थिति है।
उसी से विचार दिखते हैं, उसी से भावनाएँ महसूस होती हैं, उसी से शरीर की हर हरकत का ज्ञान होता है।
इस चेतना के गुण क्या हैं?
- अचल – यह बदलती नहीं, समय के साथ बूढ़ी नहीं होती, किसी घटना से हिलती नहीं।
- अक्रिय – खुद कोई काम नहीं करती, सिर्फ़ हर क्रिया के होने का ज्ञान देती है।
- असंग – किसी चीज़ से चिपकती नहीं; न शरीर से, न नाम से, न किसी भूमिका से।
जब ये समझ पक्की होने लगती है कि असल में “मैं यही चेतना हूँ”, तब एक और बड़ा परिवर्तन होता है –
“एक ही होने के कारण न राग, न द्वेष।”
जब हर जीव के भीतर वही एक चेतना दिखने लगती है तो “अपना–पराया” की दीवार गिरने लगती है।
जिसमें खुद को ही देख रहे हों, उससे द्वेष कैसा, उससे अति‑आसक्ति कैसी?
फिर ये अनुभव मजबूत होता है कि –
“मैं केवल एक साक्षी हूँ।”
शरीर चल रहा है, बोल रहा है, थक रहा है;
मन सोच रहा है, योजना बना रहा है, डर रहा है, सपने देख रहा है;
बाहर दुनिया अपनी गति से बदल रही है –
पर भीतर कहीं एक शांत बिंदु सब कुछ बस देख रहा है।
वही साक्षी असली “मैं” है, जो न घटनाओं में फँसता है, न भूमिकाओं में।
इस दृष्टि से जीवन क्या बन जाता है?
नियति का खेल देखना।
जो होना है, वह हो रहा है – शरीर के स्तर पर, समाज के स्तर पर, प्रकृति के स्तर पर।
हमारा काम केवल सजग दर्शक बने रहना है, बिना भागे, बिना दबे, बिना चिपके।
और जब यह साक्षी‑भाव स्थिर होने लगता है तो एक और गहरी समझ उभरती है –
“ज्ञान और अज्ञान से भी परे।”
यहाँ तक कि “मुझे अब ज्ञान हो गया” या “मैं अभी अज्ञानी हूँ” – ये दोनों भी मन के विचार हैं।
चेतना तो इन विचारों के पहले भी थी, बाद में भी रहेगी;
वह किसी लेबल की मोहताज नहीं है।
असली राज़: शरीर एक पर्दा है, तुम पर्दे से परे हो
अब दोनों दुनियाओं को साथ‑साथ देखो –
बाहर की दुनिया, भीतर का मन;
उनके खेल, उनके उतार‑चढ़ाव, उनके सुख‑दुख।
ऐसा लगता है जैसे शरीर सिर्फ़ एक पर्दा हो,
जिसके एक तरफ़ बाहर की फिल्म चल रही है,
दूसरी तरफ़ अंदर की फिल्म चल रही है।
लेकिन इन दोनों फिल्मों से हटकर,
दोनों पर्दों के पीछे‑पीछे जो हमेशा मौजूद है,
वही एक शांत, अचल, न बोलने वाली सच्चाई है –
तुम्हारा असली स्वरूप, शुद्ध चेतना।
जब यह बात अनुभव में उतरने लगती है,
तब जीवन से भागने की जरूरत नहीं रहती,
सिर्फ़ उसमें सजगता से, साक्षी भाव से उपस्थित रहना काफी होता है।
यही वह पल है,
जब इंसान बाहर की दुनिया और भीतर की दुनिया – दोनों का खेल समझकर
पहली बार सच में अंदर से मुक्त महसूस करता है।
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