1. प्रोग्रामिंग को देखने की क्षमता ही पहला संकेत है
जब इंसान यह नोटिस करता है कि:
• “यह विचार अपने‑आप आया”
• “यह प्रतिक्रिया मेरे नियंत्रण में नहीं थी”
• “यह डर या गुस्सा मेरे पुराने अनुभवों से आया”
तो इसका मतलब है कि वह अपनी प्रोग्रामिंग से अलग खड़ा हो गया है।
जो देख रहा है —
वह प्रोग्रामिंग नहीं है।
2. विचार को देखने वाला कौन है?
विचार बदलते रहते हैं।
भावनाएँ बदलती रहती हैं।
संस्कार समय के साथ कमजोर या मजबूत होते रहते हैं।
लेकिन जो इन सबको देख रहा है —
वह नहीं बदलता।
वही हमारा असली अस्तित्व है।
वह:
• प्रतिक्रिया नहीं करता
• सिर्फ देखता है
• किसी विचार को “अपना” नहीं मानता
• किसी भावना से चिपकता नहीं
• किसी संस्कार से बंधता नहीं
यही द्रष्टा है।
3. द्रष्टा प्रोग्रामिंग का हिस्सा नहीं है
प्रोग्रामिंग:
• सीखी हुई है
• बदलती रहती है
• बाहरी इनपुट पर निर्भर है
द्रष्टा:
• जन्मजात है
• स्थिर है
• किसी इनपुट पर निर्भर नहीं
द्रष्टा को न सिखाया जा सकता है,
न बदला जा सकता है,
न मिटाया जा सकता है।
वह हमेशा मौजूद रहता है —
बस ध्यान वहाँ नहीं जाता।
4. अस्तित्व की पहचान तब होती है जब इंसान खुद को विचारों से अलग देख ले
जब इंसान कहता है:
• “यह मेरा विचार नहीं, यह सिर्फ एक विचार है।”
• “यह मेरी भावना नहीं, यह सिर्फ एक भावना है।”
• “यह मेरा संस्कार नहीं, यह सिर्फ एक पैटर्न है।”
तभी वह अपने अस्तित्व को पहचानना शुरू करता है।
यही वह बिंदु है जहाँ:
प्रोग्रामिंग → ऑब्जेक्ट बन जाती है
और
द्रष्टा → सब्जेक्ट बन जाता है
यही असली पहचान है।
5. अस्तित्व की पहचान कोई आध्यात्मिक घटना नहीं — एक स्पष्टता है
यह कोई चमत्कार नहीं।
यह कोई रहस्य नहीं।
यह कोई ध्यान की उपलब्धि नहीं।
यह सिर्फ एक साधारण, सीधी समझ है:
“मैं वह नहीं हूँ जो मेरे अंदर चल रहा है।
मैं वह हूँ जो उसे देख रहा है।”
यही मानव जागृति का दूसरा चरण है
Read our Part1 of Identity vs programming at:-
अस्तित्व Vs प्रोग्रामिंग – भाग 1 – Manav Jagrutihttps://anandvivek.org/identity-vs-programming-part/

