एक समय था जब ऋषि-मुनि आत्मबोध की शिक्षा देते थे, अब मनुष्य अपनी पहचान मोबाइल पर ढूंढ़ता है। यह ब्लॉग उस खोते हुए आत्मचेतना की कहानी है।
आत्मबोध का समय
एक समय था जब मानव जीवन आध्यात्मिक जागृति के इर्द-गिर्द घूमता था। हमारे ऋषि-मुनि हमें भीतर देखने की सीख देते थे — कि हम यह सीमित शरीर या क्षणिक मन नहीं हैं, बल्कि वह चेतना हैं जो इस जीवन के खेल को देखती, रचती और अनुभव करती है।
तब जीवन का उद्देश्य स्वयं को जानना था। व्यक्ति की पहचान उसके सदाचार, चरित्र और अंतरतम गहराई से होती थी, न कि बाहरी दिखावे से। अस्तित्व का माप मौन, सरलता और सत्य से होता था, न कि सूचनाओं और ऐप्स से।
डिजिटल युग में बदलाव
फिर डिजिटल युग आया — जब मोबाइल हमारी पहचान का दर्पण बन गया। धीरे-धीरे, जो ध्यान पहले भीतर की ओर था, वह बाहर की ओर खींच लिया गया।
अब व्यक्ति का मूल्य उसके पोस्टों, लाइक्स और ऑनलाइन छवि से तौला जाता है। “स्व” की जगह “सामाजिक पहचान” ले गई है। मोबाइल अब हमारा सेवक नहीं, हम इसके सेवक बन गए हैं।
आभासी दुनिया का भ्रम
आभासी दुनिया में हम जीने से अधिक अभिनय करते हैं। हम प्रभाव जमाने के लिए पहचान बनाते हैं, प्रकट करने के लिए नहीं। असलीपन की जगह संयोजन ने ले ली है। जो आत्मनिरीक्षण था, वह निरंतर प्रसारण में बदल गया है।
सामाजिक स्वीकृति क्षणिक आनंद देती है, पर भीतर खालीपन छोड़ती है। कोई भी फ़िल्टर उस सत्य को छुपा नहीं सकता कि हम भीतर छिपी शाश्वत चेतना से दूर हो रहे हैं।
सच्चे स्व को पुनः प्राप्त करना
शांति पाने के लिए आत्मचेतना की ओर लौटना होता है। यह तब शुरू होता है जब स्क्रीन बंद हो, और दिल जागृत हो। ध्यान करें, विचार करें, और पूछें: जब मोबाइल हाथ में नहीं होता तो मैं कौन हूँ?
वह शुद्ध चेतना फिर खोजें जो बिना निर्णय के देखती है, बिना आसक्ति के रचती है, और लाइक्स व एल्गोरिदम से परे जीवित रहती है। यही आपकी असली पहचान है — कालातीत, स्वतंत्र, और प्रकाशमान।
निष्कर्ष – सजगता ही नई क्रांति है
मानवता की अगली क्रांति तकनीक से नहीं, सजगता से आएगी। जब तक लोग बाहर अर्थ खोजते रहेंगे, अराजकता बढ़ेगा। पर जब हम भीतर देखेंगे, तो तकनीक फिर से एक उपकरण बन जाएगी, स्वामी नहीं।
दुख से छुटकारा—आध्यात्मिक ज्ञान की सुपरपावर! – Manav Jagruti

