“मो को कहाँ ढूँढ़े रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में…”
कबीर की ये कालजयी वाणी हमें एक गहन सत्य समझाती है—परमात्मा कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर विराजमान हैं। मनुष्य का सारा जीवन ईश्वर की खोज में बीतता है, परंतु उसी दौरान वह सबसे बड़ी भूल करता है कि उसे बाहर तलाशता है।
आत्मा और बीज की उपमा
जीवन की सबसे सुंदर उपमाओं में से एक है बीज और आत्मा।
बीज चाहे वर्षों तक धरती के गर्भ में पड़ा रहे, लेकिन जब उस पर पानी, हवा और सूर्य की किरणें मिलती हैं, तो वह जीवन की तरंगों से भर उठता है। उसी तरह हर जीवात्मा में ईश्वरीय चेतना का बीज छिपा हुआ है।
जागृति के उपादान
- श्रद्धा के आँसू – जैसे पानी बीज को सींचता है, वैसे ही भक्ति और श्रद्धा आत्मा को जीवंत करती है।
- आत्मा का ओज (प्रकाश) – जैसे सूरज की किरणें बीज को दिशा देती हैं, वैसे ही आत्मिक प्रकाश हमें भीतर के अंधकार से बाहर लाता है।
- सांसों की साधना – जैसे हवा जीवन का आधार है, वैसे ही प्राण-साधना और ध्यान आत्मा को गति देते हैं।
परमात्मा का मार्ग
जब आत्मा इन तीनों उपादानों से परिपूर्ण होती है, तब वह सुप्त बीज की तरह अंकुरित होकर परमात्मा की ओर अग्रसर हो जाती है।
यह सीख केवल दर्शन नहीं है, बल्कि जीवन का व्यावहारिक मार्ग है। हमें ईश्वर के लिए तीर्थ, मंदिर या आसमान में भटकने की आवश्यकता नहीं; उनका वास्तविक निवास हमारे हृदय के भीतर है।
प्रिय साधक, अब प्रश्न यह है—क्या आप तैयार हैं अपने भीतर के बीज को श्रद्धा, साधना और आत्मज्योति से सींचकर परमात्मा की ओर बढ़ने के लिए?

