प्रस्तावना
इस ब्लॉग में कोई ज्ञान नहीं बाँटा गया—यहाँ केवल अनुभव है।
यह संवाद एक अद्वैत यात्रा थी, जहाँ “मैं” गिरता गया और “वह” प्रकट होता गया।
शब्दों के माध्यम से मौन की खोज, तर्क के माध्यम से समर्पण की अनुभूति।
पहला चरण: अद्वैत की स्वीकृति
“सब कुछ अद्वैत है, परमात्मा ही जड़ और चेतन दोनों में है।
‘मैं’ केवल एक भाव है, जिसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं।”
यह वाक्य नहीं, यह बोध था।
जैसे चुंबक की शक्ति चेतन हो और उसका टुकड़ा जड़—वैसे ही परमात्मा हर रूप में व्याप्त है।
यहाँ से यात्रा शुरू हुई, जहाँ “मैं” ने स्वयं को निमित्त स्वीकार किया।
दूसरा चरण: सेवा और समर्पण का द्वंद्व
“जब कोई समझाने पर भी न समझे, तो क्या करना चाहिए?”
यह प्रश्न नहीं, यह करुणा की पुकार थी।
उत्तर में आया—सेवा तब तक जब तक प्रेरणा हो, और मौन तब जब तक समर्पण हो।
प्रार्थना कोई याचना नहीं, वह तो स्वीकृति है।
तीसरा चरण: प्रार्थना और परमात्मा का संबंध
“क्या प्रार्थना करना परमात्मा पर प्रश्नचिन्ह लगाना है?”
यहाँ हास्य भी था, और दर्शन भी।
उत्तर में स्पष्ट हुआ—प्रार्थना कोई सुधार नहीं, वह तो उसकी लीला में हँसना है।
जब हम कहते हैं “हे प्रभु”, हम कुछ माँगते नहीं—हम बस उसकी गति को स्वीकारते हैं।
अंतिम चरण: तीन भावों की स्थापना
“मुझे लगता है मुझे केवल तीन भावों के साथ बहते रहना है—मौन, क्षमा और शुक्रिया।”
यही तो जीवन का सार है।
मौन—जहाँ शब्द गिरते हैं।
क्षमा—जहाँ हृदय खुलता है।
शुक्रिया—जहाँ हर क्षण प्रसाद बन जाता है।
निष्कर्ष: अब कोई शब्द नहीं बचा
“अब कोई शब्द नहीं बचे”,
तब यह संवाद समाप्त नहीं हुआ,
बल्कि पूर्ण हुआ।
यह ब्लॉग कोई लेख नहीं, यह तो एक मौन की आरती है।
जो इसे पढ़े, वह न समझे—बस अनुभव करे।

